माँ करणी जी का द्वितीय धामः- साठीका
साठीका-60 पुरस गहरा पानी होने वाले गाँवोे का नामकरण होता है। इसी वजह से इस गाँव का नाम साठीका हुआ। भगवती श्री करणी जी की भौतिक आयु जब विवाह योग्य हो गई तो साठीका गांव के केलूजी बीठू के सुपुत्र देपाजी के साथ उनका विवाह तय कर दिया गया। देपाजी के पूर्व पुरूष बीठूजी को जांगळू के तत्कालीन अधिपति खीमसी सांखला ने 11 गाँव प्रदान कर सम्मानित किया था। बीठनोक उनका प्रमुख गाँव व निवास स्थल था। बीठूजी को प्रदत्त 11 गांवो में साठीका भी एक था जहां उनके वंशज धींधा की संतान निवास करती थी।
करणी जी का विवाह बहुत धूमधाम से सम्पन्न हुआ। करणी जी महाराज का ननिहाल आढ़ां गाँव में आढ़ां चारणों के घर था। परन्तु श्री करणी जी केविवाह में ननिहाल से कोई भात भरने व पाट उतारने नहीं आया। इस कारण करणी जी आढ़ा चारणों को श्राप दे दिया कि तुम मैदानी भागों में नहीं पनप सकोगे पहाड़ी क्षेत्रों में अपना गुजारा करना। विवाह के अवसर पर साठीका गांव में तोरण बांध कर वर-वधु का बधावा कर स्वागत किया गया। खेजड़ी की जिन दो सूखी लकड़ियों पर यह तोरण बाँधा गया था, वे हरी हो गई थी। वही पवित्र तोरण आज भी साठीका मंढ में विद्यमान है। हजारों लोग उसके दर्शन कर धन्यता अनुभव करते हैं। यह तोरण वाला मंढ कहलाता है। इस मंदिर में परम्परागत रूप से साठीका के सुथार परिवार के लोग पूजा करते है।
साठीका में भगवती श्री करणी जी का प्रवास अल्प ही रहा क्योंकि करणी जी के पास विपुल मात्रा में गौधन था और साठीका में पानी का नितान्त अभाव था। इस गाँव में पानी बहुत गहरा एवं अल्प मात्रा में था। अतः पानी के लिए सगौत्री चारण कुटुम्बियों के साथ निरन्तर तनाव रहने लगा। अन्त में जब गायें प्यासी रहने लगी और गांव का विरोध अधिक बढ़ गया तब करणी जी ने साठीका गाँव का सदैव के लिए परित्याग कर दिया।
जहां अभी नवीन मंदिर का निर्माण हो रहा है वहीं पुराना साठीका गाँव आबाद था। करणी जी महाराज द्वारा परित्याग करने के बाद साठीका गांव में अग्निकाण्ड होने लगे और कूंए का पानी भी सूख गया। साठीका के चारणों द्वारा नेहड़ी जी के स्थान पर जाकर पुनः प्रार्थना करने पर करणी जी महाराज ने गाँव को पश्चिम दिशा में बसाने का आदेश दिया तथा कूंए में भी कामचलाऊ पानी निकलने का वचन दिया। माँ की ममता अद्भुत एवं अपार है- ‘मंद करत तिंही करत भलाई‘ वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
वर्तमान में करणी जी के पुरातन घर की जगह भव्य मंदिर निर्माण का संकल्प मथाणिया निवासी कल्याणसिंह जी अमरावत ने लिया था। इस कार्य में जुटे रहकर प्रारम्भिक कार्य सम्पन्न कर उन्होनें भावी योजना को मूर्तरूप देने का निश्चय किया। परन्तु दुर्भाग्यवश अकस्मात हुई दुर्घटना में उनका निधन हो गया। इस महत्त्वपूर्ण योजना को गहरा आघात लगा जिसकी भरपाई होना मुश्किल लगता है। तत्पश्चात इस काम को मूंजासर निवासी फरसदानजी बीठू के पुत्र भंवर दान जी बीठू ने अपने जिम्मे लिया। इस महत कार्य में दुर्गादान जी गाडण और माधुदान जी साठीका आदि उनके सहयोगी बने। इन्होनें अनेक गाँवों में भ्रमण कर जनसहयोग एकत्र किया तथा अभी जो मंदिर खड़ा है इसका निर्माण कर मूर्ति स्थापित कर पूजा प्रारम्भ करवाई। इस स्थान पर अभी भी कार्य अधूरा है। यहां पर पूजा-अर्चना साठीका के चारण परिवार बारी से करते है।
इसी गांव में करनेत खेत में भी एक छोटा मंदिर बना हुआ है जिसकी पूजा-अर्चना भी नियमित रूप से होती है। साठीका गांव में उस समय बिच्छुओं का अत्यधिक प्रकोप था। जब करणी जी महाराज को नववधु के रूप में बसाया जा रहा था तभी उनकी ननद को बिच्छु ने काट लिया। करणी जी ने अपनी ननद की बिच्छुदंष की पीड़ा को देख कर आज्ञा दी कि आज के बाद साठीका गांव में कभी बिच्छु नहीं होगा। उनका वरदान आज तक फलित है साठीका गांव में कभी बिच्छु नहीं होते। इसी प्रकार उनके अन्य अनेक वचन आज भी शत्-प्रतिशत फलित है, क्योंकि माँ का विरूद अनन्त है। |