चारण नारायण सिंह गाडण ट्रस्ट (देशनोक) डांडूसर की ओर से हार्दिक स्वागत
   
   
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परमधाम गड़ियाला
भगवती श्री करणी जी की भौतिक आयु जब डेढ़ सौ वर्ष (150वर्ष) से अधिक हो गई। जोधपुर एवं बीकानेर के सुदृढ़ राज्यों की स्थापना कर उनकी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया गया। देशनोक बसा कर चारों और नववृन्दावन ओरण की प्रतिष्ठा कर दी गई। अन्याई लुटेरों, चरित्रहीन राजाओं, उच्छृंखल ग्रासियों का उन्मूलन कर राठौड़ भाटी एकता स्थापित कर दी गई। समस्त मरू-जांगळ देश में न्याय, नीति, भक्ति और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो गया। जिसके फलस्वरूप अनेक संत-महात्माओं ने इस क्षेत्र को अपनी तपः स्थली बनाया, नये अहिंसक धर्मों का सूत्रपात हुआ। पूरे क्षेत्र को अशान्ति, दुर्भिक्ष, कलह तथा लूटपाट से मुक्ति प्राप्त हो गई और शान्ति एवं सद्भावना आदि मानवीय मूल्यों की पुनस्र्थापना हो गई। इस प्रकार भगवती के अवतरण का उद्देश्य लगभग सम्पूर्ण हो गया था। तब मां करणी ने अपनी भौतिक लीला को संवरण करने का निश्चय किया। चराचर विश्व जिनसे उत्पन्न होता है और पुनः उसमें ही लय हो जाता है, उन मेहाई माता ने अपने लोक प्रयाण करने का संकल्प लिया। देशनोक में अपने भक्त राजा-महाराजाओं, सेठ-साहुकारों, साधारण जन एवं अपने परिजनों इत्यादि सभी को बुलाकर उनके समक्ष घोषणा कर दी कि, “मेरा अवतार काल अब मैं सम्पन्न करूंगी। मैं बीकानेर-जैसलमेर सीमा पर सदेह अपने लोक को प्रयाण करूँगी। उस समय मेरे पास कोई नहीं होगा। क्योंकि मेरे दिव्य लोक गमन की अद्भुत लीला कोई मानव अपने साधारण नेत्रों से देख नहीं सकता। इसलिए मैं एकाकि ही अपने भ्रमण-पथ में ही अपने लोक को प्रस्थान करूंगी। मेरी यह भौतिक देह आप कोई नही देख सकोगे परन्तु मेरा तो कभी महाप्रलय में भी विलोपन नहीं होता। अतः मैं मूर्ति स्वरूप में सदैव यहां देशनोक में विद्यमान रहूंगी। जो भक्त है, उन्हें मेरी यहां विद्यमानता का अहर्निस आभास होता रहेगा। यद्यपि मैं मानव शरीर से पर्दा करूंगी परन्तु मेरा दिव्य रूप शास्वत है।”
इस प्रकार भगवती श्री करणी जी ने अपना अन्तिम वचन देकर देशनोक से प्रस्थान किया। उनके साथ पूनोजी एवं सारंग थे। पथ में अनेक दुःखी, दरिद्री, पीड़ित, राजा, रंक आदि अपना दुःख दर्द लेकर आते रहे और मातेश्वरी उनका समाधान करती रही। मां करणी के रथ ने जांगल से विदा होकर ठरड़ा होते हुए माढ़ प्रदेश में प्रवेश किया। स्त्री-पुरूषों के दल महम्माईके दर्शनार्थ आते रहे और भगवती के साक्षात दर्शन प्राप्त कर कृत्य-कृत्य होते रहे। माढ़ क्षेत्र की राजधानी जैसलमेर से सात कोस पूर्व ही महारावळ जैतसी करणी जी महाराज की अगवानी करने सामने आया। उसके साथ सामन्तों, परिजनों एवं जनसाधारण का हुजूम था। रावल जैतसी पीठ में अदीठ (कैन्सर) से ग्रस्त था। पीठ के केन्सर ग्रस्त स्थान से लगातार मवाद गिर रहा था। परन्तु महारावल अपनी पीड़ा को भूलकर एक पालकी में उल्टा लेट कर मां के स्वागतार्थ उपस्थित हुआ। पालकी रूकवाकर रावल ने भगवती के चरणों में प्रणिपात किया। भगवती श्री करणी जी ने उसकी पीठ के रोग ग्रस्त भाग पर अपना कर-कमल फेरा। मां के अमृत कर का स्पर्श होते ही जैतसी का रोग नष्ट हो गया। महारावल जैतसी की काया कंचन हो गई और चिर रोग ग्रस्त से मुक्ति प्राप्त हो गई। मां की जय-जयकार से गगन गूंज उठा। करणी जी को पगमंडा कर जैसलमेर के गढ़ में प्रवेश कराया, चहुंओर बधावे गाए गए। जैसलमेर प्रवास के दौरान ही जन्मान्ध बनाजी खाती से करणी जी ने स्वयं अपनी देव प्रतिमा का निर्माण कराया। प्रतिमा अंकन जब पूरा हो गया तो बनाजी को आदेश दिया कि मेरी प्रतिमा पर शेष कार्य पूर्ण कर देशनोक ले जाना। प्राचीन ख्यातों एवं काव्य पदों में इस घटना का उल्लेख प्राप्त होता है।