चारण नारायण सिंह गाडण ट्रस्ट (देशनोक) डांडूसर की ओर से हार्दिक स्वागत
 
गाडण गुण भण्डार
(चारण नारायण सिंह गाडण- व्यक्तित्व एवं कृतित्व)
डिंगळ के महान कवि केशवदास गाडण ने अपनी उत्कृष्ट आध्यात्मिक काव्यरचना ‘विवेकवार निसांणी’ में विलक्षण ज्ञान, आध्यात्मिक अनुभूति एवं अन्तप्र्रेरणाके आधार पर मनुष्य जीवन की सार्थकता के प्रति उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है किः-
लाहा है संसार दा अल्ला थी डरणा।
आदू राह न छोडणा सांई सूं भरणा।।
हक्क हलाल हिसाब सूं फुरमाया करणा।
रिज्जक सिदका बांटणा तिस थी निसतरणा।।
‘‘अर्थात सदैव परमात्मा का स्मरण रखना, पूर्वजों एवं सत्पुरूषों द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलते रहना, हक और ईमानदारी की कमाई में विश्वास रखना, हिंसा-पापकर्म से बचकर रहना, सत्य-असत्य विवेक और विधि निषेध का सावधानी पूर्वक पालन करना, सदाचरण एवं सदावृत्र्तियों में प्रवृत्त रहकर सद्वृति से उपार्जित आजीविका का दशमांश परोपकार में खर्च करना। ये मनुष्य जीवन की सार्थकता के सूत्र है और इस प्रकार के सदाचरण से मनुष्य का कल्याण सुनिश्चित है।’’ ठीक इसी प्रकार से सुविख्यात भक्त कवि ईश्वरदास जी बारहठ ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘हरिरस’ में विचार व्यक्त किए हैः-
भाग बड़ा तो राम भज बखत बड़ा कछु देह।
अकल बड़ी परोपकार कर देह धरियां फळ ऐह।।
‘‘अर्थात भाग्य बड़ा है तो ईश्वर का निरन्तर स्मरण कर, समय अच्छा है तो कुछ दान कर, बुद्धि श्रेष्ठ और तीव्र है तो परोपकार कर। यही तीन सूत्र मनुष्य जीवन की सार्थकता एवं कल्याण के प्रतीक है।’’ यही गुण मनुष्य को देवत्व प्रदान करने में सक्षम हैं तथा इन गुणों के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणी जगत से भिन्न एवं विशिष्ट है। यह सर्व विदित है कि चारण जाति ने मानव समाज को अनेकानेक गुणी जन प्रदान किए है। उनमें से एक नाम स्वर्गीय नारायण सिंह जी गाडण का भी है। वे आज शरीर से हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनके कार्य एवं सेवांए आज भी कीर्ति के रूप में अमिट रूप से मौजूद है। श्री नारायण सिंह जी गाडण को एक विद्यानुरागी, व्यावहारिक दृष्टिकोण वाले, दूरदर्शी, मितव्ययी, सादगी पसंद एवं समाज सेवा को समर्पित व्यक्तित्व के रूप में सदैव याद किया जाएगा।
चारण जाति में प्रमुखतः 2 शाखाएं है (1) मारू एवं (2) काछेला। काछेला शाखा के चारणों की गुजरात में बहुतायत है और मारू चारणों की राजस्थान में। चारणों की कुल 120 गोत्र है जिसमें एक गोत्र का नाम गाडण है। गाडण शाखा के चारणों का उद्गम स्थल ‘गाडणां’ गांव है जो कि जोधपुर जिले के भाप कस्बे के निकट स्थित है। कालान्तर में यह गोत्र पूरे राजस्थान में फला फूला। इस गोत्र में अनेक नवरत्न हुए हैं जिन्होनंे साहित्य को सृजन से एवं मातृभूमि को अपने रक्त से अभिषिक्त कर सिंचित एवं समृद्ध किया है। इस सम्बन्ध में एक दोहा बहुत प्रचलित हैः-
सदु पशायत मायसिंह, केशव गोकुलदान।
गाडण ऐ इतरा हुआ, वंश बढ़ावण मान।।
इसी वंश में संवत् 1650 में चोलोजी गाडण हुए है। चोलोजी डिंगल के कवि, दूरदृष्टा, गहरी सूझ-बूझ वाले सद्गृहस्थ पशुपालक थे। बीकानेर रियासत के प्रतापी राजा रायसिंह जी के देहावसान के पश्चात उनके दो राजकुमारों दलपत सिंह जी एवं सूरसिंह जी में सत्ता संघर्ष उत्पन्न हो गया था। इस संघर्ष में दलपत सिंह जी ने सत्ता पर अधिकार कर लिया और सूरसिंह जी सत्ता विहिन होकर अपने ननिहाल जैसलमेर सहायता प्राप्त करने की उम्मीद से जा रहे थे। इस दौरान मार्ग में स्थित गाडणां गाँव में चोलोजी गाडण के यहां उन्होने रात्रि विश्राम किया। परस्पर गहन परिचय हुआ और चोलोजी ने सूरसिंह जी का विपत्तिकाल में साथ निभाने का निश्चय किया। चोलोजी ने अपना कार्य परिजनों के सुपुर्द कर सूरसिंह जी के साथ जैसलमेर के लिए प्रस्थान किया। यद्यपि जैसलमेर से उन्हंे किसी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं हुई। और वे लगभग 12-13 वर्षो तक यूं ही घूमते-भटकते रहे। इस दौरान मुगल बादशाह अकबर की मृत्युपरान्त जहांगीर सम्राट के रूप में गद्दीनशीन हुआ। जिसके दलपत सिंह जी से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। समय के औचित्य को भांपते हुए सूरसिंह जी एवं चोलोजी गाडण ने बादशाह जहांगीर के समक्ष उपस्थित होकर बीकानेर रियासत की सत्ता पर अपनी दावेदारी का पक्ष पुरजोर तरीके से रखा। बादशाह उनके सहयोग हेतु सहमत हो गया। जहांगीर की सहायता प्राप्त कर संवत् 1670 में छापर के युद्ध में सूरसिंह जी ने विजय श्री का वरण कर बीकानेर की सत्ता पर अधिकार किया। महाराजा सूरसिंह जी के इस सम्पूर्ण संघर्षकाल में चोलोजी गाडण ने जिस स्वामीभक्ति एवं मित्र धर्म का पालन कर जो प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग प्रदान किया था वह सचमुच अनूठा एवं अविस्मरणीय था। परिणामस्वरूप महाराजा सूरसिंह जी ने चोलोजी गाडण की सेवाओं के प्रति अपार कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उन्हें सात गाँवों की जागीर एवं लाख पसाव का उपहार भेंट कर सम्मानित किया। इस सम्बन्ध में यह दोहा बहुत प्रचलित हैः-
ओलै राखण आपरै, चोळै नै कर चाव।
सूरजमाल समापिया, पणधर लाख पसाव।।
डांडूसर गाँव के गाडण इन्हीं चोलोजी की संतति है। चोलोजी गाडण ने ‘वेली सूरसिंह जी री’ काव्य ग्रन्थ एवं अन्य अनेक फुटकर काव्य रचनाओं का सृजन किया। चोलोजी गाडण के वंशजों में कई विद्धान कवि, साहित्यकार एवं शूरवीर हुए है जिन्होनें विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ी है।
कालान्तर में बीकानेर रियासत के गांव डांडूसर में चोलोजी गाडण के वंशज मुकुन्ददान जी गाडण हुए जो अपने समय के बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। ठाकुर मुकुन्ददान जी की सहधर्मिणी इमरती बाई की कोख से छह कन्याओं के पश्चात दिनांक 17 जुलाई 1917 को श्री नारायण सिंह जी का जन्म हुआ तो समूचे क्षेत्र में हर्ष की लहर दौड़ गई। घर में लम्बे समय तक उत्सव का वातावरण रहा। अत्यन्त लाड-प्यार में माता-पिता की छत्र-छाया में आपका लालन-पालन हुआ। तत्कालीन जीवन-शैली एवं परिस्थितियां अत्यन्त दुरूह एवं कठिन थी। संसाधनों एवं सुविधाओं का नितान्त अभाव था। वर्तमान में ढ़ाणी-ढ़ाणी एवं गांव-गांव में शैक्षणिक संस्थान स्थापित हो गए हैं, शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य हो गई है। परन्तु उस समय शिक्षा प्राप्त करना बेहद कठिन कार्य था। वस्तुतः उस समय गांवों में पत्र पढ़ने वाले नहीं मिलते थे और अंग्रेजी में तार आने पर तो पढ़वाने हेतु लोगों को शहर जाना पड़ता था। ऐसे अभावग्रस्त समय में आम व्यक्ति तो अपने बच्चों की पढ़ाने की कल्पना भी नहीं करता था क्योंकि धनाढ्य एवं बड़े-बड़े जागीरदारों के बालको हेतु भी शिक्षा प्राप्त करना एक सुनहरे ख्वाब जैसा था। परन्तु निश्चय की दृढता परिस्थितियों की वशीभूत नहीं होती वरन कभी कभी तो परिस्थितियों को भी परिवर्तित कर देती है। ठाकुर मुकुन्ददान जी गाडण भी ऐसे ही दृढ निश्चय वाले व्यक्ति थे। उन्हांने विपरीत परिस्थितयों की परवाह न करते हुए अपने इकलौते पुत्र नारायण सिंह को बीकानेर स्थित ‘मोहता मूलचंद स्कूल’ में प्रवेश दिलावाया। इधर नारायणसिंह जी भी एक जिज्ञासु एवं प्रतिभावान छात्र होने के साथ शिक्षार्जन के उचित पात्र एवं पिता श्री की आकांक्षाओं पर खरे उतरने वाले योग्य पुत्र थे। यद्यपि श्री मुकुन्ददान जी गाडण आर्थिक रूप से पूर्णतया सम्पन्न एवं धनाढ्य जमींदार थे तथापि उन्होनें अपने पुत्र नारायणसिंह जी को अध्ययन हेतु राजकीय कोष से पांच रूपए प्रतिमाह छात्रवृत्ति दिलवाई। इसके पीछे मुकुन्ददान जी का यही मन्तव्य था कि छात्र नारायण सिंह धन की अहमियत को समझे, धन के अभाव में कितनी प्रतिभांए उचित अवसरों से वंचित रह जाती है, इस बात को गहराई से समझें और उनके जीवन में मितव्ययता एवं स्वावलम्बन का समावेश हों। नारायण सिंह जी ने अपने पिता के गूढ़ मन्तव्य को पूर्ण गम्भीरता से समझा और अपने जीवन में उतारा जिसकी अभिव्यक्ति उनके जीवन के अन्तिम क्षणों तक उनके द्वारा किए गए कार्यो के माध्यम से प्रकट होती रही।
अध्ययनकाल में श्री नारायणसिंह जी गाडण को विलक्षण प्रतिभावान मित्रों का सानिध्य प्राप्त हुआ। या यूं कहूं कि इस क्षेत्र में वे बेहद सौभाग्यशाली व्यक्ति थे, तो शायद अनुचित नहीं होगा। क्यांकि आपको अध्ययनकाल में जिन स्वजातिय महानुभावों की मित्रता प्राप्त हुई थी वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। बल्कि वे अपने-अपने क्षेत्र की महान विभूतियां थी। जिन्होनें अपनी सेवाओं से समाज को, राष्ट्र को तथा भारतीय संस्कृति को ही गौरवान्वित कर दिया। इस प्रसंग में सर्वप्रथम उल्लेख करना चाहूंगा श्री देवीदान जी रतनू दासौड़ी का जो कालान्तर में स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती के नाम से माॅरीशस के राष्ट्रपिता के रूप में विश्व विख्यात हुए। उन्होनंे युवावस्था में सन्यास ग्रहण कर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में राव गोपालसिंह खरवा तथा ठाकुर केशरीसिंह जी बारठ के साथ कार्य किया। तदोपरान्त महात्मा गाँधी के वर्धा स्थित आश्रम में रहकर राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन रूपी यज्ञ में अपनी सेवाओं की आहुति दी। देश की स्वाधीनता के पश्चात गाँधीजी के मूलमंत्र- ‘‘मानव सेवा ही प्रभु सेवा है’’ को स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ने विश्वव्यापि स्तर पर चरितार्थ कर दिखाया। स्वामी विवेकानन्द जी के पश्चात भारतीय संस्कृति की पताका विश्व स्तर पर फहराने का भागीरथ कार्य स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ने ही सम्पन्न किया। वे प्रवासी भारतीयों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक संरक्षक तथा मार्गदर्शक थे। स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ने माॅरीशस देश की आजादी के आंदोलन को अपना सुयोग्य नेतृत्व प्रदान कर आजादी दिलवाई। स्वतन्त्र माॅरीशस की सरकार ने स्वामी जी के सेवा कार्यो के प्रति अपार कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके चित्र का डाक टिकट जारी किया। स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती ने विश्व के 71 देशों में संस्थाएं स्थापित कर विभिन्न प्रकार के सेवा कार्यो, समाजीक तथा धार्मिक कार्यो से भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित कर दिया। वे विश्व की 27 भाषाओं की ज्ञाता थे। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष, बुद्धिजीवी, उद्योगपति, पत्रकार, साहित्यकार, समाज सेवक तथा जन साधारण उन्हें गुरू के रूप में वंदन करके स्वयं को धन्य समझते थे। वे विश्व विख्यात संत स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती कोई और नहीं ठाकुर नारायण सिंह जी गाडण के बालसखा श्री देवीदान जी रतनू दासौड़ी थे। इसी प्रकार श्री भैंरूदान जी नांधू सूरपालिया की सेवांए भी चारण समाज के लिए अविस्मरणीय है। उन्होनें बीकानेर में श्री करणी चारण छात्रावास की स्थापना मे संस्थापक की भूमिका का निर्वहन किया जहां से कई चारण प्रतिभाएं निकल कर पुष्पित-पल्लवित हुईं। वे भैंरूदान जी नांधू भी श्री नारायण सिंह जी गाडण के परम मित्रों में से एक थे। इसी प्रकार श्री केशवदान जी बीठू सींथल भी इस मित्र मण्डली के एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ थे। ऐसे विलक्षण प्रतिभावान मित्रों की संगति एवं सानिध्य पाकर नारायणसिंह जी की विचारधारा बहुत परिष्कृत एवं समाज के प्रति अधिक प्रतिबद्ध हो गई थी।
आपने सन् 1939 में आगरा बोर्ड द्वारा संचालित हाई स्कूल की परीक्षा उत्र्तीण की। बीकानेर रियासत में महाराजा गंगासिंह जी का शासन था। शिक्षित होने के कारण श्री नारायण सिंह जी गाडण को बीकानेर रियासत में महकमा खास (निजी सचिवालय) में नियुक्ति मिल गई जहां वे रियासतों के विलीनीकरण तक रहे। सन् 1949 में आप राज्य सेवा में आ गए। 37 वर्षो तक सुदीर्घ राजकीय सेवा में
विभिन्न पदों पर रहते हुए श्री नारायण सिंह जी गाडण ने सन् 1975 में सेवा निवृत्ति प्राप्त की। इस दौरान आपने अपने पिता श्री की सम्पूर्ण भावनाओं एवं सपनों को साकार रखने में कोई कसर नहीं रखते हुए जीवन पर्यन्त बहुत सा धनार्जन किया, परिवार को पूर्ण समृद्धि प्रदान की। उन्होनें अपने सभी पुत्रों को उच्चतम शिक्षा दिलवाई, उच्च पदों पर आसीन करवाया। स्वावलम्बन, मितव्ययता, धन का सदुपयोग और सादगी उनके मूलमंत्र थे। दिखावा, प्रदर्शन एवं चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें शख्त परहेज था। वे स्वयं बेहद व्यावहारिक एवं स्पष्टवादी थे। उनकी सहृदयता से अनभिज्ञ व्यक्ति तो उनके वार्तालाप की स्पष्टता से कई बार हत्थे से उखड़ जाते थे। नीति साहित्य का यह राजस्थानी दोहा उन पर बहुत चरितार्थ होता थाः-
दुश्मण की किरपा बुरी, भली सजन की त्रास।
बादळ कर गरमी करै, जद बरसण की आस।।
वे जितने तीव्र स्पष्टवादी थे उतने ही हृदय से कोमल एवं संवेदनशील भी थे। उनके कारण ही आज उनके सभी पुत्र उच्च पदों पर आसीन होकर विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ रहे है।
उन्होंनें अपने गाँव में बंजर पड़ी जमीन को कृषि योग्य बनाया। जिप्सम खनन का कार्य प्रारम्भ कर क्षेत्रीय लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाया। जमीनों को सिंचित कर सरसब्ज बनाया। अपने गाँव डांडूसर में भगवती श्री करणी जी महाराज का सुन्दर मंदिर बनवाकर लोगों की आस्था को संबल प्रदान किया। समाज सेवा की भावना श्री नारायण सिंह जी के मन में प्रारम्भ से ही घर कर गई थी इसीलिए शुरू से ही व्यक्त भी होने लगी थी। सर्वप्रथम उन्होनें अपने गाँव की पेयजल समस्या का समाधान करने हेतु स्थानीय जनसहयोग प्राप्त कर स्वंय के अथक प्रयासों से- ‘गोगाना’ नामक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया जो आज भी विद्यमान है।
शिक्षित एवं युवा नारायण सिंह जी गाडण ने बीकानेर मण्डलीय चारण सभा के कार्यकुशल मंत्री के रूप में लम्बे अर्से तक सेवांए प्रदान कर अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ी है जो विरासत के रूप में सदैव चिरस्मरणीय रहेगी। मण्डलीय चारण सभा बीकानेर ने उनके मंत्री काल में क्रमशः देशनोक, सींथल, ऊदासर एवं देराजसर में चार अखिल भारतीय चारण सम्मेलनों का सफल आयोजन किया। इन आयोजनों की सफलता के पीछे नारायण सिंह जी की पूर्ण तत्परता, कर्मठता, समर्पण एवं सेवा भाव कार्य कर रहा था। आपने लम्बे समय तक श्री करणी चारण छात्रावास बीकानेर की व्यवस्था में भी अपना अनूठा योगदान प्रदान किया। चारण जाति में व्याप्त कुरीतियों, प्रदर्शन एवं झूठे दिखावे के प्रति श्री गाडण के मन में एक गहरी पीड़ा छुपी हुई थी जो उन्हें जीवन भर कचोटती रही। मुझे जब भी आपके सानिध्य में बैठने का मौका मिला, तब-तब उनकी पीड़ा का आभास होता रहा। वे शिक्षा में ही समस्त समस्याओं का समाधान देखते थे। शिक्षा के प्रति उनका नजरिया बेहद स्पष्ट था। वे कहा करते थे कि ‘‘हमारी जाति की पहचान ही शिक्षा के कारण है। लोग हमें सरस्वती पुत्रों के रूप में सम्बोधित करते है। अशिक्षा मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे समाज में अनेक कुरीतियंा उत्पन्न हो जाती है। इन सभी समस्याओं का निराकरण विद्यार्जन में है और इसी में व्यक्ति एवं समाज का सर्वांगीण विकास निहित है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान है। वर्तमान के प्रतियोगी युग में तो शिक्षा का महत्त्व अत्यधिक समीचीन हो जाता है।
श्री नारायण सिंह जी गाडण का एक सपना था कि- ‘‘मेरी जाति के लोग कैम्ब्रिज, आॅक्सफोर्ड एवं कैलिफाॅर्निया विश्व विद्यालयों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपनी सेवाओं से समाज और राष्ट्र को गौरवान्वित करें।’’ इसी सपने को मूर्त रूप देने के लिए श्री गाडण ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में चारण जाति के सबसे बड़े तीर्थ भगवती श्री करणी जी महाराज की तपोभूमि एवं लीला स्थली देशनोक में 15 फरवरी 1988 में ‘चारण नारायण सिंह गाडण पुनर्थ ट्रस्ट’ की स्थापना की। इस ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य चारण जाति के युवा वर्ग एवं प्रतिभावान विद्यार्थियों को एक विशिष्ट मंच से सम्मानित कर समाज के नव-निर्माण में उनका सहयोग एवं भागीदारी निश्चित करना है। इस ट्रस्ट में प्रारम्भ में 1,25,000/- (एक लाख पच्चीस हजार रूपया) स्थायी रूप से देशनोक बैंक में जमा करवाया था जो कालान्तर में उनके परिजनों द्वारा और वृद्धि को प्राप्त हुआ। इस स्थाई फण्ड की वार्षिक ब्याज राशि प्रति वर्ष आश्विन मास की शारदीय नवरात्रि में माँ करणी जी के जन्म दिवस सप्तमी के शुभ अवसर पर ट्रस्ट द्वारा चारण जाति के प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को प्रशस्ति-पत्र के साथ सम्मानार्थ प्रदान की जाती है। जिससे उनका उत्साह वर्धन हो और वे शैक्षणिक क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर समाज को एक नया आयाम प्रदान कर सकें। 15 फरवरी 1988 से आज तक प्रतिवर्ष यह कार्यक्रम निरन्तर रूप से संचालित है। यह पुरस्कार-वितरण सामारोह अत्यन्त सादगी पूर्ण ढ़ग से आयोजित किया जाता है ताकि राशि का विद्यार्थी हित में अधिकाधिक सदुपयोग हो सके। इस ट्रस्ट में 8 ट्रस्टी है जिनमें एक ट्रस्टी श्री नारायण सिंह जी के वंशजो में से है तथा 7 ट्रस्टी देशनोक निवासी। इस ट्रस्ट की संरचना से लेकर अब तक सम्पन्न गतिविधियों में माँ भगवती करणी जी महाराज के वंशज देपावतों का अनूठा एवं सक्रिय योगदान रहा है जिसके लिए समस्त देपावत साधुवाद के पात्र हैं। यह ट्रस्ट नारायण सिंह जी गाडण के जीवन की चारण जाति को दी गई एक अनुपम सौगात है। समाज इस कार्य के लिए सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहेगा क्योंकि ऐसा पुनीत कार्य कोई सामान्य व्यक्ति सम्पन्न नहीं कर सकता।
आज चारण जाति में अनेकानेक कुरीतियां घर कर गई है। टीका-प्रथा एवं दहेज प्रथा का जिन्न समाज को ग्रस रहा है। ‘‘कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोय’’ हो गई है। देवीपुत्र एवं शक्ति उपासक की संज्ञाओं से विभूषित इस जाति के लोग भगवती की सुहासनियों का मूल्यांकन उनकी प्रतिभा एवं योग्यता से नहीं करके टीका एवं दहेज की तराजू के माध्यम से कर रहे है। प्रबुद्धतम एवं साहित्यिक समाज की यह कैसी प्रबुद्धता है? यह कैसा सृजन है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं। ऐसे में आज फिर इस जाति को श्री नारायण सिंह जी गाडण जैसे समाज सेवक की महत्ती आवश्यकता है।
ऐसी धारणा है कि लक्ष्मी एवं सरस्वती में परस्पर छत्तीस का आँकड़ा होने के कारण ये दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकती। परन्तु नारायण सिंह जी ने इस धारणा को उलट कर दिया था। क्यांेकि उन पर दोनोें की समान कृपा-दृष्टि रही। उन्होंने विद्यार्जन एवं अर्थोपार्जन समान रूप से किया। वे समाज सेवक के साथ-साथ साहित्य के गहन अध्येता, चिंतक एवं विद्वान थे।
महाकवि केशवदास जी गाडण की उच्च स्तरीय आध्यात्मिक काव्य कृति ‘‘विवेक वार निसांणि’’ का प्रकाशन एवं संपादन उनकी साहित्यिक प्रतिभा का परिचायक है। इसके अतिरिक्त डिंगल के युवा कवि श्री गिरधर दान रतनू द्वारा संकलित ‘करणी कीरत’ पुस्तक का प्रकाशन भी श्री गाडण की साहित्यिक गुण ग्राहकता का द्योतक है। श्री नारायण सिंह जी भगवती श्री करणी महाराज के अनन्य भक्त थे।उनके सद्परामर्श अत्यन्त लाभप्रद एवं व्यावहारिक होते थे। वे मेरे पितामह एवं गुरू श्री देवीदान जी रतनू दासौड़ी (कालान्तर में स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती) के परम मित्र होने के कारण मेरे प्रति अगाध स्नेह रखते थे। मैं उनसे प्राप्त स्नेह के प्रति कृतज्ञ हूँ।
नारायण सिंह जी गाडण के सुपुत्र श्री जगदीशराज सिंह गाडण इस ट्रस्ट के स्थाई एवं सक्रिय सदस्य होने के साथ-साथ इन पंक्तियों के लेखक के परम मित्र भी है। वे अपने पुत्र शुभम सिंह के साथ इस ट्रस्ट के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सत्त रूप से प्राण-प्रण एवं तन,मन और धन से जुटे हुए है। उनको अपने पूर्वजों के पुनीत पथ पर आरूढ़ देख कर मन प्रसन्नता से झलक उठता है। वे इस ट्रस्ट की गतिविधियों के संचालन की सम्पूर्ण सफलता का श्रेय श्री करणी जी महाराज के वंशज देपावत कुटुम्ब एवं समस्त चारण समाज को देते है। क्योंकि वे यह जानते है कि इस ट्रस्ट की रूप रेखा से लेकर आज तक आयोजित सभी गतिविधियों के संचालन में श्री करणी जी महाराज के वंशज देपावत कुटुम्ब का जो अनूठा सहयोग एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ है वह माँ भगवती की कृपा का ही प्रसाद है भगवती श्री करणी जी महाराज के इन वरद पुत्रों की सहायता के बिना यह कार्य असंभव होता। इस प्रकार श्री जगदीश राज सिंह गाडण देपावत परिवार के अनूठे सहयोग के प्रति सदैव अगाध श्रद्धा एवं कृतज्ञता केे भाव से ओत-प्रोत रहते हैं। साथ ही साथ सम्पूर्ण चारण समाज भी धन्यवाद का पात्र है जिसने नारायण सिंह गाडण ट्रस्ट द्वारा प्रदत्त पुरस्कार को मां करणी के पावन प्रसाद के रूप में मान्यता प्रदान कर अत्यधिक लोकप्रियता प्रदान कर दी है जिसके लिए जगदीश राज सिंह गाडण एवं शुभम सिंह गाडण सदैव चारण समाज के ऋणि रहेंगें।
बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी श्री नारायण सिंह जी गाडण का दिनांक 31 अक्टूबर 1997 को 80 वर्ष की आयु में देहावसान होने के साथ ही समाज सेवा के एक युग का समापन हो गया। उन्होंने अपने विलक्षण एवं विविध गुणों, कार्यो तथा सेवाओं से चारण जाति को गौरवान्वित कर दिया। स्व. नारायण सिंह जी ने महाकवि गाडण एवं भक्त कवि ईशरदास जी बारठ द्वारा प्रतिपादित मनुष्य जीवन की सार्थकता परक गूढ मन्तव्यों को सार्थक कर महाकवि पृथ्वीराज जी राठौड़ के दोहे में प्रयुक्त इस उक्ति को भी सार्थकता प्रदान कर दी कि - ‘‘गाडण गुण भण्डार’’। उस दिव्य आत्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि एवं कोटिशः नमन, वंदन।
आलेख - जगदीश रतनू (दासौड़ी)